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झारखंड में बदहाल उर्दू की दास्तान, लेखक : गुलाम शाहिद

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रांची : कहने को तो उर्दू झारखंड में ऑफिशियली सेकंड लैंग्वेज यानी सरकारी दूसरी ज़बान हैं लेकिन आज भी ये कहीं कोने में अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही हैं. होना तो बहुत कुछ चाहिए जैसे हर नाम प्लेट उर्दू में, ज़रूरी कागजात उर्दू मे, एप्लीकेशन उर्दू में ली जाये और उसका जवाब भी उर्दू में दिया जाये, उर्दू की पढने और पढ़ाने के तमाम सहूलियतें हो लेकिन उर्दू झारखंड में खुद कागजों से बाहर नहीं निकल पाई। उर्दू टीचर्स की कमी, पढने और पढ़ाने वाले दोनों नहीं मिलते, नयी नस्ल भी इससे दूर और रही सही कसर सरकार के सौतेले रवैये ने पूरी कर दी हैं। उर्दू अखबार से जुड़े गुलाम शाहिद ने बताया कि आज कल राजनीतिक कारणों की वजह से उर्दू को मुसलमानों की और हिंदी को हिन्दुओं की भाषा माना लिया गया है।जिसकी वजह से स्कूल कॉलेज तक में उर्दू को लगातार नज़र अंदाज़ किया जा रहा है।इस मामले में वह आगे कहते हैं, “उर्दू किसी मज़हब की जुबान नहीं हैं. हिन्दुस्तान की जबान है ये अलग बात है कि आज भी अगर उर्दू भाषा में कहीं काम के लिए उर्दू में एप्लीकशन देने हों तो लोग लेने से मना कर देतें हैं. बैंक, स्कूल या किसी भी दफ्तर में उर्दू दरख्वास्त लेना तो दूर देखना भी पसंद नहीं करतें हैं”।हालात हमेशा से ऐसे न थे. कभी राज्य में उर्दू का भी बोलबाला था. वह कहते हैं,”देश हो या राज्य सभी जगह उर्दू की हालत निचले पायदान पर है. आज स्कूल में उर्दू के शिक्षक ना के बराबर हैं. बीस साल पहले तक कक्षा एक से ग्रेजुएशन तक सारी किताबें उर्दू में उपलब्ध होती थी लेकिन अब उर्दू भाषा की किताबें भी कोर्स कंम्प्लीट होने पर मिलती हैं. सरकार की तरफ से उर्दू किताबों की छपाई सबसे लेट होने की वजह से छात्रों को देर से मिलती हैं. यही वजह हैकि समय पर किताब- शिक्षक ना होने से बच्चे उर्दू के बजाय हिंदी माध्यम मे ज्यादा हैं। उर्दू ज़बान को नौकरी से न जोड़ना भी इसके गिरने का एक बड़ा कारण हैं. हम ने उर्दु से पडाइ की लेकिन बेरोजगार हैं क्यूंकि झारखंड में उर्दू जुबान वालों के लिए नौकरी नहीं है. ” जब तक राज्य स्तर की प्रतियोगिता परीक्षाओं में उर्दू को अनिवार्य नहीं किया जायगा तब तक उर्दू जुबान वालों को शायद ही सरकारी नौकरियों के लिए कोई फायदा मिल पाएगा,” सरकारी स्कूलों में उर्दू की स्तिथि की मॉनिटरिंग नहीं होने से इस भाषा का पठन-पाठन लगभग बंद हैं. बच्चों को किताबें नहीं मिल रहीं हैं. ज्यादातर स्कूलों में उर्दू सिर्फ एक भाषा सप्लीमेंट्री के तौर पर पढ़ाई जाती है. जब तक उर्दू को तकनीकी शिक्षा से जोड़ा नहीं जायगा तब तक कुछ भी संभव नहीं है। ऐसे हालात के लिए सिर्फ सरकारें ज़िम्मेदार नहीं हैं. नयी नस्ल भी उर्दू नहीं पढना चाहती हैं. उर्दू अब सिर्फ सियासी भाषा हो चुकी है. अंग्रेजी और हिन्दी के मुकाबले युवाओं का रूझान उर्दू की तरफ कम है. हिंदी पत्रकारिता के मुकाबले उर्दू पत्रकारिता ना के बराबर है।हाँ, एक बात ज़रूर हैं. उर्दू अभी भी गरीब मुसलमानों के पास बची हैं. शायद उसकी एक वजह ये भी हैं कि वो महंगे अंग्रेजी मीडियम स्कूल में अपने बच्चो को नहीं भेज पाते और मोहल्ले में खुले हुए उर्दू मीडियम के मदरसे ही उनका सहारा हैं. इसके अलावा जिसके पास पैसा हैं वो सीधे अंग्रेजी मीडियम स्कूल की ओर जाता हैं.

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