18 दिसंबर: विश्व अल्पसंख्यक दिवस और आज का मुस्लिम समाज


इंसानी इतिहास गवाह है कि ताकत और सत्ता पर अक्सर बहुसंख्यक समाज का कब्जा रहा है। जिनके पास संख्या ज्यादा होती है, वही फैसले तय करते हैं। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदाय, चाहे वह धर्म के आधार पर हों, भाषा या जाति के आधार पर, ज़्यादातर पीछे छूट जाते हैं। इसी सच्चाई को समझते हुए 18 दिसंबर को विश्व अल्पसंख्यक दिवस मनाया जाता है, ताकि दुनिया यह याद रखे कि अल्पसंख्यकों के अधिकार भी उतने ही जरूरी हैं जितने किसी और के।
भारत अपने आप को लोकतांत्रिक और संविधान आधारित देश कहता है। हमारे संविधान ने साफ लिखा है कि सभी नागरिक बराबर हैं। किसी के साथ धर्म, जाति या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि जो बातें संविधान में लिखी हैं, क्या वे ज़मीन पर भी दिख रही हैं।
भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को स्पष्ट और मजबूत अधिकार दिए हैं। अनुच्छेद 14, 15 और 16 समानता और भेदभाव से सुरक्षा की गारंटी देते हैं, जबकि अनुच्छेद 25 से 30 धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक पहचान और शैक्षणिक अधिकारों को सुरक्षित करते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह सवाल उठाने पर मजबूर करती है कि क्या ये अधिकार सिर्फ कागजों तक सीमित होकर रह गए हैं।
आज की हकीकत यह है कि मुस्लिम समाज खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नफरत, संदेह और बहिष्कार की घटनाएं बढ़ी हैं। पहचान के आधार पर निशाना बनाना, रोजमर्रा की जिंदगी में भेदभाव और डर का माहौल अब असामान्य नहीं रहा। लगभग 16 प्रतिशत आबादी वाले इस समुदाय के लिए यह स्थिति बेहद चिंताजनक है। पिछले कुछ सालों में नफरत भरी भाषा, शक की नजर और हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या, और दोषियों को सजा न मिलना, हमारे सिस्टम पर गंभीर सवाल खड़े करता है। जब मुसलमान अपने हक की बात करते हैं या किसी अन्याय का विरोध करते हैं, तो कई बार उनके घर और दुकानें बुलडोज़र से गिरा दी जाती हैं। यह कानून नहीं, डर पैदा करने का तरीका बनता जा रहा है।
मस्जिदों, मदरसों और अन्य धार्मिक स्थलों को लेकर भी लगातार विवाद खड़े किए जा रहे हैं। पुराने धार्मिक स्थलों को मुद्दा बनाकर समाज में तनाव फैलाया जा रहा है। इससे न तो देश आगे बढ़ता है और न ही आम लोगों की जिंदगी बेहतर होती है।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने बहुत पहले बता दिया था कि मुसलमान शिक्षा और रोज़गार के मामले में काफी पीछे हैं। इसके बावजूद आज तक उनके लिए ऐसी मजबूत नीतियां नहीं बनीं, जिनसे उनकी हालत सुधर सके। उल्टा उन्हें बार-बार देशद्रोही, आतंकवादी और पाकिस्तानी कहकर बदनाम किया जाता है, जिससे उनका आत्मसम्मान और सुरक्षा दोनों खतरे में पड़ जाते हैं।
यह सब अचानक नहीं हो रहा। धर्म के नाम पर राजनीति करना आसान होता है। नफरत फैलाकर सत्ता मजबूत की जाती है और एक पूरे समुदाय को डर में रखा जाता है। लेकिन यह रास्ता देश को कमजोर करता है, मजबूत नहीं। यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं है। पड़ोसी देशों में भी अल्पसंख्यकों के साथ होने वाली घटनाएं दिखाती हैं कि बहुसंख्यक वर्चस्व और असहिष्णुता एक वैश्विक चुनौती है।
विश्व अल्पसंख्यक दिवस पर हमें सिर्फ भाषण नहीं देने चाहिए, बल्कि ईमानदारी से सोचना चाहिए कि क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह संविधान को सख्ती से लागू करे। कानून सबके लिए बराबर हो। किसी भी समुदाय के साथ अन्याय हो, तो उसे तुरंत रोका जाए।
मुस्लिम समाज को शिक्षा, रोज़गार और सुरक्षा की ज़रूरत है, न कि शक और नफरत की। नफरत फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, तभी समाज में भरोसा लौटेगा।
आखिर में इतना ही कहना है कि विश्व अल्पसंख्यक दिवस हमें याद दिलाता है कि किसी भी देश की पहचान इस बात से होती है कि वह अपने कमजोर और अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है। जब तक मुसलमानों समेत सभी अल्पसंख्यकों को बराबरी, सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक हमारा लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा।
तनवीर अहमद
सामाजिक कार्यकर्ता
9431101871








